सालासर धाम का इतिहास, सालासर धाम की पौराणिक कथा, मोहनदास और बालाजी का मल्लयुद्ध , बालाजी मूर्ति की स्थापना , बालाजी के दर्शन
सालासर धाम का इतिहास
सालासर धाम राजस्थान के चुरू जिले में स्थित है यहां पर बालाजी का बहुत ही भव्य मंदिर स्थापित है इस मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी मन्नत मांगने के लिए आते हैं यहां पर आने वाले हर व्यक्ति की मुराद पूरी होती है इसी मंदिर में सवामणी के लिए भी प्रसाद उपलब्ध करवाया जाता है यहां पर बहुत ही भव्य मेला लगता है
पौराणिक कथा
यह घटना आज से 350 साल पुरानी है सीकर के रूल्याणी गांव के निवासी पंडित लछी राम जी पाटोदिया के सबसे छोटे बेटे मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृत्ति के थे उनके जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक तेजस्वी संत बनेगा और दुनिया में इसका नाम होगा मोहन दास की बहन कान्ही रानी का विवाह सालासर गांव में हुआ था एकमात्र बेटे उदय के जन्म के कुछ समय बाद ही वह विधवा हो गई मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने के लिए सालासर आकर उनके साथ रहने लगे उनकी मेहनत से कान्ही के खेत से सोना उगलने लगे भांजा भी बड़ा हो गया उसकी शादी भी कर दी गई
1 दिन मामा भांजे खेत में खेती कर रहे थे तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया मोहनदास जी फिर गंडासा उठा लाए और काम में लग गए लेकिन दोबारा किसी ने गंडासा छीन कर फेंक दिया ऐसा कई बार हुआ दूर से उदयराम यह सब देख रहा था वह पास आया और मामा को कुछ देर आराम करने की सलाह दी लेकिन मोहन दास जी ने कहा कि उनके हाथ से जबरदस्ती कोई गंडासा छीन कर फेक रहा है शाम को उदय ने अपनी मां को सारी बात बता दी कान्ही ने सोचा कि भाई की शादी करवा देते हैं सब ठीक हो जाएगा यह बात मोहनदास जी को पता चली तो उन्होंने कहा कि जिस लड़की से भी मेरी शादी होगी उसकी मृत्यु हो जाएगी और वास्तव में ऐसा ही हुआ
जिस लड़की से उनकी शादी की बात चल रही थी वह अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो गई इसके बाद कान्ही ने अपने भाई पर शादी का दबाव कभी नहीं डाला इसके बाद मोहन दास जी ने ब्रह्मचर्य व्रत का धारण किया और भजन कीर्तन में समय बिताने लगे एक दिन कान्ही अपने भाई और बेटे को भोजन करा रही थी तभी द्वार पर किसी याचक ने भिक्षा मांगी कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दिखाई दी पीछे पीछे मोहन दास जी भी दौड़े आए उन्हें सच्चाई पता पड़ गई यह तो बाला जी हैं कान्ही को अपने ऊपर बहुत पछतावा हुआ वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन करने का आग्रह करने लगी
मोहन दास जी ने उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी लगभग 2 महीने बाद किसी साधु ने फिर से ‘नारायण हरि’, ‘नारायण हरि’ का उच्चारण किया जिसे सुनकर कान्ही दौड़ी-दौड़ी मोहन दास जी के पास गई मोहनदास जी द्वार पर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि वह साधु धारी बालाजी ही थे जो अब तक वापस हो लिए थे मोहनदास जी तेजी से उनके पीछे दौड़े और उनके चरणों में लेट गए और देरी के लिए माफी मांगने लगे तब बालाजी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले मैं जानता हूं मोहनदास तुम सच्चे मन से मुझे सदैव जपते हो तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करूंगा बोलो
मोहनदास जी बोले आप मेरी बहन को दर्शन दीजिए भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा मैं पवित्र आसन पर विराजमान और मिश्री, खीर और चूरमे का भोग स्वीकार कर लूंगा शिरोमणि मोहनदास जी बालाजी को अपने घर लाए और भाई बहन ने आदर सहित उन्होंने बालाजी को मनपसंद भोजन कराया सुंदर और साफ सैया पर विश्राम करने के बाद भाई बहन की निश्चल सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर बालाजी ने कहा कि कोई भी मेरी छाया को अपने ऊपर करने की चेष्टा नहीं करेगा श्रद्धा सहित जो भी भेंट की जाएगी मैं उसे प्रेम से स्वीकार करूंगा और अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करूंगा और सालासर स्थान पर सदैव निवास करूंगा ऐसा कहकर बालाजी अंतर्ध्यान हो गए | सालासर धाम का इतिहास |
मोहनदास और बालाजी का मल्लयुद्ध
एक बार भांजे उदय ने देखा कि मामा के शरीर पर पंजों के बड़े-बड़े निशान थे तब उसने पूछा तो मामा टाल गए बाद में पता चला कि बाबा मोहनदास और बालाजी अक्सर मल्लयुद्ध करते थे और बालाजी का साया सदैव मोहन दास जी के साथ रहता था इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहन दास जी कीर्ति आसपास के सभी गांवों में फैलती चली गई लोग उनके दर्शन को आने लगे उस समय “सालासर” बीकानेर राज्य के अधीन था उन दिनों गांव का शासन ठाकुरों के हाथ में था सालासर और उसके आसपास के कई गांवों की देखरेख का जिम्मा शोभासिंह के ठाकुर “धीरज सिंह” के पास था
एक दिन उन्हें खबर मिली कि डाकुओं का विशाल जत्था लूटपाट के लिए उस और बढ़ा चला आ रहा है उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवाते आखिरकार सालासर के ठाकुर ‘सालम सिंह’ की सलाह पर दोनों बाबा मोहन दास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार की बाबा ने कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उड़ा देना क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है ठाकुरों ने वैसा ही किया बालाजी का नाम लेकर डाकूओं की पताका उड़ा दी डाकू सरदार उनके चरणों मेंआ गिरा मोहन दास जी के प्रति दोनों की श्रद्धा और भक्ति और अधिक बढ़ती चली गई मोहन दास जी ने उसी पल वहां बालाजी का एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प लिया सालम सिंह ने भी मंदिर निर्माण में पूरा सहयोग देने का निश्चय किया | सालासर धाम का इतिहास |
बालाजी मूर्ति की स्थापना
असोटा निवासी अपने ससुर चंपावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश भिजवाया बात 1754 की है उधर असोटा गांव में एक किसान ब्रह्म मुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था अचानक हल का फल किसी वस्तु से टकराया उसने खोद कर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली उसने मूर्ति को निकाल कर एक और रख दिया और कोई ध्यान नहीं दिया और अपने काम में फिर से लग गया अचानक उसके पेट में दर्द उठा और वह वहां गिर कर छटपटा ने लगा उसकी पत्नी दौड़ी दौड़ी आई किसान ने दर्द से कराहते हुए पत्थर की मूर्ति निकालने और पेट में दर्द होने की बात बताई
उसकी पत्नी बुद्धिमान थी वह प्रतिमा के निकट पहुंची और आदर पूर्वक अपने आंचल से उसकी मिट्टी साफ की तो वहां राम लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की झांकी के दर्शन हुए काले पत्थर की प्रतिमा को उसने एक पेड़ के निकट स्थापित किया वह किसान के लिए खेत में चूरमा लेकर आई थी उसने उसी चूरमे से बाला जी को भोग लगाया और प्रसाद चढ़ाकर अपराध क्षमा की प्रार्थना की उसी समय चमत्कार हुआ वह किसान ठीक होकर खड़ा हो गया इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई हाथ उठाकर ठाकुर चंपावत दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए उसी रात ठाकुर को बालाजी ने सपने में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी | सालासर धाम का इतिहास |
बालाजी के दर्शन
सुबह ठाकुर चंपावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाड़ी में मूर्ति को सालासर की और विदा कर दिया उसी रात भक्त शिरोमणि मोहन दास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए “काले पत्थर” की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं सुबह ठाकुर सालम सिंह और उनके ग्राम वासियों ने बाबा मोहन दास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया और सन 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूरे विधि विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई
“श्रावण द्वादशी मंगलवार” को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होंने घी और सिंदूर से मूर्ति को पूरी तरह से शृंगारित दिया और उन्हें कुछ ध्यान भी नहीं रहा उस समय बालाजी का पूर्व रूप जिसमें वह भगवान श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे अदृश्य हो गया उसकी जगह पर दाढ़ी मूछें मस्तक पर तिलक बड़ी बड़ी सुंदर आंखें पर्वत पर गदा धारण किए हुए अद्भुत रूप के दर्शन होने लगे इसके बाद धीरे-धीरे मंदिर का काम आगे की ओर बढ़ता चला गया तब से लेकर आज तक और आने वाले कई युगों तक सालासर के बालाजी अपने सच्चे भक्तों की दिल से मांगी गई हर इच्छा पूरी करते आ रहे हैं और करते रहेंगे | सालासर धाम का इतिहास |