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भीष्म पितामह द्वारा लड़े गए युद्ध
भीष्म पितामह द्वापर युग के बहुत बड़े योद्धा थे उन्होंने भगवान परशुराम की युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया था भीष्म पितामह का भगवान परशुराम के साथ युद्ध 21 दिनों तक चला और वह अपराजय रहे थे भीष्म पितामह के लिए उनके वचनों का मूल्य उनके जीवन से भी अधिक था | भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |
भीष्म पितामह का शांतनु के साथ युद्ध
एक बालक गंगा किनारे धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था और उसे अभ्यास करते करते उसने गंगा के पानी में इतने बाण मारे की गंगा का जल प्रवाह रुक गया यह देखकर महाराज शांतनु को बहुत ज्यादा क्रोध आया और उन्होंने इस बालक को युद्ध के लिए ललकारा परंतु सही समय पर गंगा में वहां आकर पिता और पुत्र को एक दूसरे का परिचय दिया और अपने पुत्र देवव्रत को उन्होंने शांतनु को सौंप दिया था और कहा कि इसके जैसा योद्धा पूरे भारतवर्ष में नहीं है
इसके कुछ समय बाद एक घोड़े बेचने वाले ने महाराज शांतनु को एक घोड़ा देखने के लिए कहा जिसे काबू में करना हर किसी के बस की बात नहीं थी परंतु गंगा पुत्र भीष्म ने उसे वश में किया और उसके सवारी का आनंद लेने के लिए हस्तिनापुर से कुछ दूर जंगलों में निकल गए जब उन्होंने देखा कि वहां शालव कुमार हस्तिनापुर पर आक्रमण करने की सोच रहे हैं और अपनी सेना को लेकर हस्तिनापुर की ओर आ रहे हैं
इसके बाद भीष्म ने उनके सामने वापस लौट जाने का आग्रह किया और उन्हें इसके परिणाम के बारे में बताने की कोशिश की थी लेकिन सालों कुमार को यह नहीं पता था कि वह सबसे बड़े योद्धा के सामने खड़ा है और उन्होंने युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली इस युद्ध में भीष्म ने सालों को पराजित करके उसे बंदी बना लिया और उसे हस्तिनापुर ले आए
भीष्म की प्रतिज्ञा
जब उनके पिताजी शांतनु ने उन्हें सालव को दंड देने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि हमें अपने पड़ोसियों से हमेशा मित्रता का व्यवहार करना चाहिए ,युद्ध शत्रु के अंत पर समाप्त नहीं होता बल्कि शत्रुता के अंत पर समाप्त होता है भीष्म पितामह की यह बात सुनकर उनके पिता महाराज शांतनु बड़े प्रसन्न हुए और अपने पुत्र कि न्यायप्रियता को देखते हुए हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया इसके बाद उन्होंने अपने पिता महाराज शांतनु के लिए उन्होंने इतना बड़ा त्याग किया कि उन्होंनेआजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया और सिंहासन को ही अपने पिता का रूप समझकर उसकी सेवा करने का प्रण लिया और ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा की वजह से उन्हें भीष्म कहा जाने लगा| | भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |
भीष्म पितामह का सालों के साथ युद्ध
इसके बाद उन्होंने सत्यवती से जनित उनके दोनों भाइयों का पालन पोषण किया और उन्हें राजगद्दी तक लेकर गए उसके बाद राज सिंहासन संभालने वाले उनके छोटे भाई चित्रांगद की मृत्यु हो गई उसके बाद उन्होंने विचित्रवीर्य को सिंहासन पर बैठाया और उनके विवाह के लिए काशी नरेश के वहां पहुंच गए जहां पर स्वयंबर चल रहा था और काशी नरेश ने हस्तिनापुर में कोई निमंत्रण नहीं भेजा था
पितामह भीष्म को वहां देख कर वहां योद्धाओं ने उनका मजाक उड़ाने की कोशिश की पर क्रोधित होकर भीष्म पितामह ने तीनों कन्याओं को अपने साथ चलने के लिए कहा ,बाकी योद्धाओं को युद्ध के लिए चुनौती दी जो मुझे रोकना चाहता है वह वह युद्ध के मैदान में आ जाए बहुत सारे योद्धाओं को पराजित किया एक बार फिर से सालव नरेश वहां आ गए वह अंबा से विवाह करना चाहते थे और अंबा भी उनके साथ विवाह करना चाहती थी परंतु पितामह भीष्म को यह बात नहीं पता थी जब युद्ध में पराजित होकर सालव नरेश वहां से अपने राज्य लौट गए हैं और पितामह भीष्म हस्तिनापुर आ गए
तब वहां पर अंबा ने उन्हें बताया कि वह सालव नरेश से विवाह करना चाहती हैं और उन्होंने मन ही मन उनका वरण कर लिया है इसके बाद भीष्म पितामह ने उन्हें राजकीय सम्मान के साथ वापस सालव नरेश के पास भिजवा दिया उसके बाद सालव नरेश ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया तब वह फिर से भीष्म पितामह के पास वापस लौट आई और उनसे विवाह करने का निवेदन किया परंतु इस योद्धा ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया हुआ था | भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |
भीष्म पितामह का परशुराम के साथ युद्ध
भीष्म पितामह ने विवाह के इस निवेदन को अस्वीकार कर दिया था इसके बाद अब्बा गुरु परशुराम के पास पहुंची और उनसे अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए गुहार लगाई इस पर भगवान परशुराम ने भीष्म पितामह को अब्बा से विवाह करने के लिए कहा ,उनके युद्ध की चुनौती को स्वीकार करने के लिए कहा इसके बाद भीष्म पितामह ने गुरु की आज्ञा लेकर उनसे युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया और यह युद्ध 21 दिनों तक चलता रहा है
युद्ध के अंतिम पड़ाव में भगवान परशुराम ने कहा या तो मेरा वध कर दो या फिर यहां से लौट जाओ इस पर यह युद्ध अनिर्णय ही रहा और दोनों योद्धा अपनी-अपनी जगह वापस लौट गए थे इस युद्ध के बाद पितामह भीष्म की ख्याति इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि हस्तिनापुर की तरफ कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकता था
भीष्म पितामह का शकुनि के साथ युद्ध
पितामह भीष्म ने गांधार नरेश शकुनी के पिता से उनकी पुत्री गांधारी का अपने पौत्र धृतराष्ट्र के लिए मांगा इस पर शकुनी काफी नाराज हुए ,परंतु भीष्म पितामह से युद्ध की चुनौती स्वीकार करना उनके बस की नहीं थी इसलिए उन्होंने गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवा दिया और कालांतर में यही युद्ध का प्रमुख कारण बने थे इसके उपरांत पितामह भीष्म ने कौरवों और पांडवों के समय भी कई बार दुर्योधन को समझाने के प्रयास किए और उसे अपने भाइयों से बैर न रखने की सलाह दी थी
पितामह भीष्म की निष्ठा उस राजगद्दी पर बैठने वाले सिंहासन धारी से थी इसलिए उन्होंने बार-बार धृतराष्ट्र से कड़े निर्णय लेने के लिए आग्रह किया और धृतराष्ट्र ने कड़े निर्णय इसलिए नहीं लिए क्योंकि अगर दुर्योधन उस निर्णय को मानने से इनकार करता तो पितामह भीष्म दुर्योधन का वध भी कर सकते थे क्योंकि उनकी निष्ठा सिंहासन पर बैठे धृतराष्ट्र से थी ना कि उनके पुत्र दुर्योधन से इसीलिए आजीवन अपने पुत्र के मोह में बंधे हुए कोई निर्णय नहीं लिया जिससे उसका पुत्र नाराज हो जाए और पितामह उसे सजा दे अपनी सिंहासन के प्रति निष्ठा के चलते भी द्रोपती वस्त्रहरण के समय पितामह मौन रहे थे | भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |
महाभारत का युद्ध
पितामह पांडवों के बनवास और अज्ञातवास के बाद जब उन्होंने विराटनगर पर युद्ध किया तो वह कौरव सेना के प्रधान सेनापति थे जिस सेना में “गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अश्वत्थामा” जैसे महारथी थे उस सेना को अर्जुन ने युद्ध में अकेले ही पराजित कर दिया था परंतु अर्जुन ने स्वयं अपने मुख से यह बात कही थी कि दीवारों के सम्मान के लिए विषम पितामह ने बेहोशी का कवच पहन लिया है अन्यथा मेरे अस्त्रों में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं उन्हें बेसुध कर सकूं
इसके बाद विश्व का सबसे भयानक युद्ध लड़ा जाता है भीष्म पितामह के द्वारा कुरुक्षेत्र की भूमि में यह दूसरा युद्ध लड़ा गया था क्योंकि पहला युद्ध अपने गुरु परशुराम से इसी भूमि पर लड़ चुके थे युद्ध के शंख बजते ही पितामह भीष्म ने पांडवों की सेना में हाहाकार मचा दिया पहले दिन उनका सामना उनके प्रपौत्र अभिमन्यु से हुआ था अभिमन्यु ने पितामह के रथ का ध्वज काट दिया था
जिससे कि पितामह बड़े प्रभावित हुए इस पर पितामह भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने यशस्वी होने का वरदान अभिमन्यु को दिया लेकिन अगले दिन के युद्ध में पांडवों को यह विश्वास हो गया था कि भीष्म पितामह अजेय है ,उनको जीतना लगभग असंभव है इसके बाद तीसरा दिन पांडव की तरफ से थोड़ा सा अच्छा रहा इस दौरान अर्जुन ने पितामह भीष्म का सामना किया और दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ ,तीसरे दिन युद्ध में भीम ने दुर्योधन को कई बाणो द्वारा घायल कर दिया जिससे उसे युद्ध भूमि से शीघ्र ही लौटना पड़ा और यह दिन पांडवों के लिए खुशी का दिन था | भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |
इसके बाद दुर्योधन पितामह से नाराज हो गया और उसने भीष्म पितामह से कहा कि आप अपने पूरे मन से अपनी लगन से युद्ध नहीं कर रहे हैं इसलिए पांडव आज हम पर भारी रहे इसी तरह भीष्म पितामह ने अगले 9 दिनों तक बहुत से पांडव सेना के योद्धाओं को भूमि पर मार गिराया इसके बाद युद्ध के नौवें दिन बिताने अर्जुन और श्री कृष्ण को भी घायल कर दिया थाइसके बाद श्री कृष्ण बहुत ही क्रोधित हुए और भारत का एक पहिया उठाकर भीष्म पितामह को मारने के लिए आगे बढ़े उसी समय अर्जुन ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया कृष्ण ने कहा कि मैं तुम्हें इतना अन्याय नहीं करने दूंगा
इस पर भीष्म पितामह मुस्कुराए और उन्होंने कहा मैं तो कब से इस पल का इंतजार कर रहा था इसके बाद पांडवों और श्रीकृष्ण के बीच एक मंत्रणा हुई और फैसला लिया गया के भीष्म पितामह को उनकी मृत्यु का कारण पूछा जाए इस पर भीष्म पितामह ने कहा कि मैं किसी भी योद्धा के सामने तो हथियार नहीं रख सकता ,परंतु नारि या अर्धनारी मेरे कोई सामने आएगी तो मैं उस पर प्रहार नहीं करूंगा और यह इशारा पांडवों के लिए काफी था
भीष्म पितामह का शिखंडी के साथ युद्ध
युद्ध के दसवे दिन पितामह भीष्म के सामने अर्जुन के रथ पर शिखंडी आए और शिखंडी ने पितामह को युद्ध के लिए ललकारा इसके बाद भीष्म पितामह ने शिखंडी पर तीर ना चला कर अपना धनुष नीचे की ओर कर लिया शिखंडी की मदद से अर्जुन ने भीष्म पितामह के शरीर को अपने बाणों से छलनी कर दिया इसके बाद भीष्म पितामह भूमि पर गिर पड़े इसके बाद युधिष्ठिर का राजतिलक होने के बाद और अर्चना पुर को सुरक्षित जानकर भीष्म पितामह ने 58 दिन के बाद भीष्म पितामह ने कौरव की सेना का 10 दिन तक नेतृत्व किया था
| भीष्म पितामह ने लड़े युद्ध |